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Friday, 12 February 2016

Hori KAHIN

           होरी कहिन 

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फूल और फल अब रहे,चहुँ दिशि में नक्काल

होरी   अपने   देश   में , बड़े   बड़े    भोकाल ।।

बड़े   बड़े  भोकाल , नक़ल  में  अकल  लगाते

दुनियाभर  का माल ,नक़ल  में  असल  बनाते ।।

कवि लेखक भी नक़ली,नक़ली नक़ली हैं स्कूल

सूँघ रहे हम जिन्हें चाव से , वे भी नक़ली फूल ।।

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पढ़ लिख कर डिग्री लिये , फिरते चारों ओर

पढ़े  लिखों  में  बढ़  रही , बेकारी   घनघोर ।।

बेकारी  घनघोर , डिग्रियाँ  भी कुछ   जाली

असली नक़ली खोखली कुछ तो चप्पे वाली ।।

स्किल   डेवलप   एक  रास्ता  , तू  आगे बढ़

स्किल   डेवलप  कोर्सों   को ही ,अब तू पढ़ ।।

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सत्तर प्रतिशत गाँव में ,अब भी देश सचान

कुछ भूखे नंगे मिलें , कुछ के निकले  प्रान ।।

कुछ के  निकले  प्रान , मगर   वे  हैं बेचारे

बस शहरों   की राजनीति के , मारे   सारे ।।

फ़सलों की लागत कम होती ,नहीं कभी भी।

अब  गाँवों  की दशा ,दुर्दशा  हाय   ग़रीबी ।।

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सभी अन्नदाता दुखी , तिल तिल मरे किसान

देश बढ़   रहा शान  से , कहते  मगर सचान ।।

कहते   मगर  सचान , देश में   ख़ुशहाली  है

यह किसान को सुन सुन कर , लगती गाली है।।

होरी  अब   भी गोदानों की , वही   कहानी  है

धनिया , गोबर वही , गाँव का वह ही पानी है ।।

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राज कुमार सचान होरी 

१७६ अभयखण्ड - इंदिरापुरम , गाजियाबाद 

horirajkumar@gmail.com




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